Saturday, October 24, 2009

तुम इक गोरखधंदा हो

कोई राँझा जो कभी खोज में निकले तेरी, तुम उसे झंग के बेले में रुला देते हो,
जुस्तुजू लेके तुम्हारी जो चले क़ैस कोई, उसको मजनू किसी लैला का बना देते हो,
जोत सस्सी के अगर मन में तुम्हारी जागे, तुम उसे तपते हुए थल में जला देते हो,
सोहनी गर तुम्हे माहीवाल तस्सव्वुर कर ले, उसको बिखरी हुई लहरों में बहा देते हो,
ख़ुद जो चाहो तो सर-ए-अर्श बुला कर महबूब, एक ही रात में महराज करा देते हो!

- नाज़

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